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शेर
जो आला-ज़र्फ़ होते हैं हमेशा झुक के मिलते हैं
सुराही सर-निगूँ हो कर भरा करती है पैमाना
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
ये मुआ'मले हैं नाज़ुक जो तिरी रज़ा हो तू कर
कि मुझे तो ख़ुश न आया ये तरिक़-ए-ख़ानक़ाही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
रक़ाबत 'इल्म ओ 'इरफ़ाँ में ग़लत-बीनी है मिम्बर की
कि वो हल्लाज की सूली को समझा है रक़ीब अपना
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
सोचता हूँ ऊला मिसरा जब कभी 'नायाब' मैं
ख़ुद को लिखवाता है बढ़ कर मिस्रा-ए-सानी मुझे