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ग़ज़ल
जो मिरे हिस्से में आवे तेग़-ए-जमधर सैल-ओ-कार्द
ये फ़ुज़ूली है कि मैं ही कुश्ता-ए-शमशीर हूँ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ये दिल क्यूँकर निगह से उस की छिदते हैं मैं हैराँ हूँ
न ख़ंजर है न नश्तर है न जमधर है न भाला है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
फ़र्क़ हरगिज़ नहीं जो तुझ से मिलावे आँखें
तीर और ख़ंजर-ओ-जम्धर के ज़ख़म चारों एक
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
कुल्लियात
जो मिरे हिस्से में आवे तेग़-ए-जमधर सैल-ओ-कार्द
ये फ़ुज़ूली है कि मैं ही कुश्ता-ए-शमशीर हूँ
मीर तक़ी मीर
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नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
तर्बियत आम तो है जौहर-ए-क़ाबिल ही नहीं
जिस से तामीर हो आदम की ये वो गिल ही नहीं