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नज़्म
तुम्हारे हुस्न के नाम
निखर गई है कभी सुब्ह दोपहर कभी शाम
कहीं जो क़ामत-ए-ज़ेबा पे सज गई है क़बा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
है सवा नेज़े पे उस के क़ामत-ए-नौ-ख़ेज़ से
आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर है गुल-ए-दस्तार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
अपनी मल्का-ए-सुख़न से
हर मौज-ए-रंग-ए-क़ामत-ए-गुलरेज़ रम में है
गोया शराब-ए-तुंद बिलोरीं क़लम में है
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
क़ामत-ए-जाँ को ख़ुश आया था कभी ख़िलअत-ए-इश्क़
अब इसी जामा-ए-सद-चाक से ख़ौफ़ आता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
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ग़ज़ल
उस ने देखा ही नहीं क़ामत-ए-ज़ेबा तेरा
जो ये कहता हो कि गुलशन में निहाल अच्छा है
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
नज़्म
वसिय्यत
लगा कर जो वतन को दाव पर कुर्सी बचाते हैं
भुना कर खोटे सिक्के धर्म के जो पुन कमाते हैं