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शाहिद कमाल

1982 | लखनऊ, भारत

शाहिद कमाल

ग़ज़ल 38

अशआर 15

जंग का शोर भी कुछ देर तो थम सकता है

फिर से इक अम्न की अफ़्वाह उड़ा दी जाए

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जब डूब के मरना है तो क्या सोच रहे हो

इन झील सी आँखों में उतर क्यूँ नहीं जाते

ये कैसा दश्त-ए-तहय्युर है याँ से कूच करो

हमारे पाँव से रफ़्तार खींचता है कोई

तू मेरे साथ नहीं है तो सोचता हूँ मैं

कि अब तो तुझ से बिछड़ने का कोई डर भी नहीं

इन दिनों अपनी भी वहशत का अजब आलम है

घर में हम दश्त-ओ-बयाबान उठा लाए हैं

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