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ग़ज़ल
तुम्हारी बे-रुख़ी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
गो हवा-ए-गुलसिताँ ने मिरे दिल की लाज रख ली
वो नक़ाब ख़ुद उठाते तो कुछ और बात होती
आग़ा हश्र काश्मीरी
नज़्म
मुफ़्लिसी
औरों को आठ सात तो वो दो टके ही पाए
इस लाज से इसे भी लजाती है मुफ़्लिसी
नज़ीर अकबराबादी
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