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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
वो मुंकिर है तो फिर शायद हर इक मकतूब-ए-शौक़ उस ने
सर-अंगुश्त-ए-हिनाई से ख़लाओं में लिखा होगा
जौन एलिया
ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
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नज़्म
ऑनलाइन आशिक़
काम मक्तूब का माउस से लिया जाता है
आह-ए-सोज़ाँ को भी अपलोड किया जाता है
खालिद इरफ़ान
ग़ज़ल
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या-रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मेरी नज़रों से जो इक बार न पहुँचा तुझ तक
फिर वो मक्तूब दोबारा नहीं लिक्खा मैं ने