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नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तक़ी मीर
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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
दीन से दूर, न मज़हब से अलग बैठा हूँ
तेरी दहलीज़ पे हूँ, सब से अलग बैठा हूँ
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
उद्धरण
सआदत हसन मंटो
नज़्म
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है
तुझ को किसी मज़हब से कोई काम नहीं है