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ग़ज़ल
मोमिन ओ काफ़िर ओ मुश्रिक न तो मुर्तद मुल्हिद
अपने डाँडे तो किसी से भी कहीं मिलते नहीं
शमीम अब्बास
ग़ज़ल
मुझे मुशरिक न समझो मैं मुवह्हिद हूँ ज़माने में
तसावीर-ए-ख़याली से भरा है मेरा बुत-ख़ाना
वाजिद अली शाह अख़्तर
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ग़ज़ल
मुशरिक कहे आशिक़ को जो ले नाम ख़ुदा का
सच कहते हो उस शोख़ से कुछ दूर नहीं है
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
आशिक़ों के आगे मुशरिक ऐ बुत-ए-यकता हूँ मैं
गर कहूँ मैं हुस्न में तू और मह-ए-कनआँ है एक
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
नअत
सोचता हूँ मैं भी काफ़िर होता या मुशरिक 'ज़की'
जो मिरे आक़ा नहीं आते हिदायत के लिए
ज़की तारिक़ बाराबंकवी
ग़ज़ल
जैसी मौजूद थी दिल में कोई ख़्वाहिश सो वो है
कोई मुशरिक न कोई मक्के से मुनकिर निकला
इक़तिदार जावेद
नज़्म
जाएज़ा
एक मुशरिक हूँ मिरा शिर्क मोहब्बत सब से
एक काफ़िर हूँ मिरा कुफ़्र सदाक़त पे यक़ीं
मुस्लिम शमीम
ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले