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नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
चमक उठे हैं सलासिल तो हम ने जाना है
कि अब सहर तिरे रुख़ पर बिखर गई होगी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
एक आरज़ू
गुल की कली चटक कर पैग़ाम दे किसी का
साग़र ज़रा सा गोया मुझ को जहाँ-नुमा हो
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे