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ग़ज़ल
कहीं सूबा-परस्ती है कहीं फ़िरक़ा-परस्ती है
वही तफ़रीक़-ए-इंसानी जो पहले थी वो अब भी है
रूमाना रूमी
ग़ज़ल
हर-दम तिरे फ़िराक़ में फिरता हूँ सू-ब-सू
लाखों बलाएँ आती हैं 'आजिज़' की जान पर
पीर शेर मोहम्मद आजिज़
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ग़ज़ल
इक़्लीम-ए-दिल सीं 'अक़्ल ने ली तब रह-ए-गुरेज़
जब सूबा-दार-ए-इश्क़ ने आ कर ‘अमल किया
सिराज औरंगाबादी
हास्य
इस में फ़िर्कावारीयत है और न सूबा-वारियत
बैनल-अक़वामी हमारी है मुसफ़्फ़ा रहगुज़र
इस्मतुल्लाह इस्मत बेग
ग़ज़ल
जुदाई से होवे मफ़रूर जाँ क़ालिब के सूबा सूँ
अपस दीदार सूँ करती हैं फिर उस कूँ बहाल अँखियाँ