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ग़ज़ल
सब से बेहतर है कि मुझ पर मेहरबाँ कोई न हो
हम-नशीं कोई न हो और राज़-दाँ कोई न हो
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
सब से बेहतर है कि मुझ पर मेहरबाँ कोई न हो
हम-नशीं कोई न हो और राज़दाँ कोई न हो
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
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शेर
तुम अपनी ज़ुल्फ़ से पूछो मिरी परेशानी
कि हाल उस को है मालूम हू-ब-हू मेरा
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
मर्सिया
अर्श के नूरी ज़मीं के फ़र्श पर आने को हैं
और इक ख़ाकी को सैर-ए-ख़ुल्द दिखलाने को हैं
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर
शेर
तेरे कहने से मैं अब लाऊँ कहाँ से नासेह
सब्र जब इस दिल-ए-मुज़्तर को ख़ुदा ने न दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
शेर
कर दिया तीरों से छलनी मुझे सारा लेकिन
ख़ून होने के लिए उस ने जिगर छोड़ दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
हास्य
हम भी उन्हीं दमों के हमेशा से फ़ैन हैं
इज़्ज़त हैं ख़ानदाँ की जो महफ़िल की ज़ैन हैं
साग़र ख़य्यामी
शेर
वो पर्दा-नशीनी की रिआयत है तुम्हारी
हम बात भी ख़ल्वत से निकलने नहीं देते