कहीं सूरज नज़र आता नहीं है
हुकूमत शहर में अब धुँद की है
क़हर ढाएगी असीरों की तड़प
और भी उलझेंगे हल्क़े दाम के
हम परिंदों से हुनर छीनेगा कौन
जल गया इक घर तो सौ घर बन गए
आप मज़लूम के अश्कों से न खिलवाड़ करें
ये वो दरिया हैं जो शहरों को निगल सकते हैं
ज़ुल्म सह के भी मैं ने होंट सी लिए 'ग़ाज़ी'
एक ज़र्फ़ उन का है एक ज़र्फ़ मेरा है
सुनी न एक भी ज़ालिम ने आरज़ू दिल की
ये किस के सामने हम अर्ज़-ए-हाल कर बैठे