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नाज़िम सुल्तानपूरी

1927 | कोलकाता, भारत

नाज़िम सुल्तानपूरी

ग़ज़ल 33

अशआर 4

अपनी संजीदा तबीअत पे तो अक्सर 'नाज़िम'

फ़िक्र के शोख़ उजाले भी गिराँ होते हैं

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बड़े क़लक़ की बात है कि तुम इसे पढ़ सके

हमारी ज़िंदगी तो इक खुली हुई किताब थी

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कितनी वीरान है गली दिल की

दूर तक कोई नक़्श-ए-पा भी नहीं

इक़तिज़ा वक़्त का जो चाहे करा ले वर्ना

हम थे ग़ैर के एहसान उठाने वाले

पुस्तकें 2

 

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