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सआदत हसन मंटो

1912 - 1955 | लाहौर, पाकिस्तान

विश्व-विख्यात उर्दू कहानीकार l 'ठंडा गोश्त', 'खोल दो', 'टोबा टेक सिंह', 'बू' आदि के रचयिता

विश्व-विख्यात उर्दू कहानीकार l 'ठंडा गोश्त', 'खोल दो', 'टोबा टेक सिंह', 'बू' आदि के रचयिता

सआदत हसन मंटो के उद्धरण

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मर्द का तसव्वुर हमेशा औरतों को इस्मत के तने हुए रस्से पर खड़ा कर देता है।

ये लोग जो अपने घरों का निज़ाम दरुस्त नहीं कर सकते, ये लोग जिनका कैरेक्टर बेहद पस्त होता है, सियासत के मैदान में अपने वतन का निज़ाम ठीक करने और लोगों को अख़लाक़ियात का सबक़ देने के लिए निकलते हैं... किस क़दर मज़हका-ख़ेज़ चीज़ है!

ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और ना इन्सानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं।

फ़िल्मों को कामयाब बनाने और सितारे पैदा करने के लिए हमें सितारा-शनास निगाहों की ज़रूरत है।

ये लोग जिन्हें उर्फ़-ए-आम में लीडर कहा जाता है, सियासत और मज़हब को लंगड़ा, लूला और ज़ख़्मी आदमी तसव्वुर करते हैं।

सियासियात से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं। लीडरों और दवा फ़रोशों को मैं एक ही ज़ुमरे में शुमार करता हूँ। लीडरी और दवा फ़रोशी, ये दोनों पेशे हैं। दवा फ़रोश और लीडर दोनों दूसरों के नुस्खे़ इस्तेमाल करते हैं।

इस्मत-फ़रोश औरत एक ज़माने से दुनिया की सबसे ज़लील हस्ती समझी जाती रही है। मगर क्या हमने ग़ौर किया है कि हम में से अक्सर ऐसी ज़लील-ओ-ख़्वार हस्तियों के दर पर ठोकरें खाते हैं, क्या हमारे दिल में ये ख़्याल पैदा नहीं होता कि हम भी ज़लील हैं?

इंसान अपने अंदर कोई बुराई लेकर पैदा नहीं होता। खूबियाँ और बुराईयाँ उस के दिल-ओ-दिमाग़ में बाहर से दाख़िल होती हैं। बाअज़ उनकी परवरिश करते हैं, बाअज़ नहीं करते।

हमें अपने क़लम से रोज़ी कमाना है और हम इस ज़रिये से रोज़ी कमा कर रहेंगे। ये हर्गिज़ नहीं हो सकता कि हम और हमारे बाल बच्चे फ़ाक़े मरें और जिन अख़बारों और रिसालों में हमारे मज़ामीन छपते हैं, उनके मालिक ख़ुशहाल रहें।

चक्की पीसने वाली औरत जो दिन-भर काम करती है और रात को इत्मीनान से सो जाती है, मेरे अफ़्सानों की हीरोइन नहीं हो सकती। मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी डरावना ख़्वाब देख कर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने रहा है... उसके भारी-भारी पपोटे जिन पर बरसों की उचटी हुई नींदें मुंजमिद हो गई हैं, मेरे अफ़्सानों का मौज़ू बन सकते हैं। उसकी ग़लाज़त, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ ये सब मुझे भाती हैं... मैं उनके मुताल्लिक़ लिखता हूँ और घरेलू औरतों की शुस्ता कलामियों, उनकी सेहत और उनकी नफ़ासत-पसंदी को नज़र-अंदाज़ कर जाता हूँ।

अगर डायरेक्टरों का अपना-अपना स्टाइल ना होगा तो फ़िल्म मुतहर्रिक तसावीर के यक-आहंग फ़ीते बन कर रह जाऐंगे।

बेसवाएं अब से नहीं हज़ारहा साल से हमारे दरमयान मौजूद हैं। उनका तज़किरा इल्हामी किताबों में भी मौजूद है। अब चूँकि किसी इल्हामी किताब या किसी पैग़ंबर की गुंजाइश नहीं रही, इस लिए मौजूदा ज़माने में उनका ज़िक्र आप आयात में नहीं बल्कि उन अख़बारों, किताबों या रिसालों में देखते हैं जिन्हें आप ऊद और लोबान जलाए बग़ैर पढ़ सकते हैं और पढ़ने के बाद रद्दी में भी उठवा सकते हैं।

मेरा ख़्याल है कि कोई भी चीज़ फ़ोह्श नहीं, लेकिन घर की कुर्सी और हांडी भी फ़ोह्श हो सकती है अगर उनको फ़ोह्श तरीक़े पर पेश किया जाए।

हिन्दी हिन्दुस्तानी और उर्दू हिन्दी के क़ज़िये से हमें कोई वास्ता नहीं। हम अपनी मेहनत के दाम चाहते हैं। मज़मून-नवीसी हमारा पेशा है, फिर क्या वजह है कि हम उस के ज़रीये से ज़िंदा रहने का मुतालिबा ना करें। जो पर्चे, जो रिसाले, जो अख़बार हमारी तहरीरों के दाम अदा नहीं कर सकते बिलकुल बंद हो जाने चाहिऐं।

हिन्दुस्तान में सैकड़ों की तादाद में अख़्बारात-ओ-रसाइल छपते हैं मगर हक़ीक़त ये है कि सहाफ़त इस सरज़मीन में अभी तक पैदा ही नहीं हुई है।

जब तक समाज अपने क़वानीन पर अज़ सर-ए-नौ ग़ौर ना करेगा वो ''नजासत'' दूर ना होगी जो तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के इस ज़माने में हर शहर और हर बस्ती के अंदर मौजूद है।

वेश्या पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। या ख़ुद बनती है। जिस चीज़ की मांग होगी मंडी में ज़रूर आएगी। मर्द की नफ़सानी ख़्वाहिशात की मांग औरत है। ख़्वाह वो किसी शक्ल में हो। चुनांचे इस मांग का असर ये है कि हर शहर में कोई ना कोई चकला मौजूद है। अगर आज ये मांग दूर हो जाये तो ये चकले ख़ुद बख़ुद ग़ायब हो जाऐंगे।

ऐक्ट्रेस बनने से पिश्तर औरत को इश्क़-ओ-मुहब्बत की तल्ख़ियों और मिठासों के अलावा और बहुत सी चीज़ों से आश्ना होना चाहिए। इसलिए कि जब वो कैमरे के सामने आए तो अपने कैरेक्टर को अच्छी तरह अदा कर सके।

अदब की रौनक़ हमारे दम से है। उन लोगों के दम से नहीं है जिनके पास छापने की मशीनें, स्याही और अनगिनत काग़ज़ हैं। लिट्रेचर का दिया हमारे ही दिमाग़ के रौग़न से जलता है।

बग़ावत-ए-फ़्रांस में पहली गोली पैरिस की एक वेश्या ने अपने सीने पर खाई थी। अमृतसर में जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे की इब्तिदा उस नौजवान के ख़ून से हुई थी जो एक वेश्या के बत्न से था।

हिन्दुस्तान को उन लीडरों से बचाओ जो मुल्क की फ़िज़ा बिगाड़ रहे हैं और अवाम को गुमराह कर रहे हैं।

जिहालत सिर्फ़ उसी सूरत में दूर हो सकती है जब दानिश-गाहों के सब दरवाज़े अवाम पर खोल दिए जाऐंगे।

जब तक औरतों और मर्दों के जज़्बात के दरमियान एक मोटी दीवार हायल रहेगी, इस्मत चुग़्ताई उस के चूने को अपने तेज़ नाख़ुनों से कुरेदती रहेगी, जब तक कश्मीर के हसीन देहातों में शहरों की गंदगी फैली रहेगी, ग़रीब कृष्ण-चंद्र हौले हौले रोता रहेगा। जब तक इन्सानों में और ख़ासतौर पर सआदत हसन मंटो में कमज़ोरियाँ मौजूद हैं, वो ख़ुर्द-बीन से देख देख कर बाहर निकालता और दूसरों को दिखाता रहेगा।

हिन्दुस्तान के इन तरक़्क़ी-पसंद नौजवानों को बीमार कहा जाता है। वो बीमार हैं, इस में कोई शक नहीं, पर ये बीमारी वो इशक़ है जो उनको अपने वतन के ज़र्रे ज़र्रे से है।

वेश्या इरादतन या किसी इंतिक़ामी जज़्बे के ज़ेर-ए-असर मर्दों के माल-ओ-ज़र पर हाथ नहीं डालती। वो सौदा करती है और कमाती है।

मज़मून निगार दिमाग़ी अय्याश नहीं। अफ़्साना निगार ख़ैराती हस्पताल नहीं हैं। हम लोगों के दिमाग़ लंगर-ख़ाने नहीं हैं।

जब तक इन्सानों में और ख़ास तौर पर सआदत हसन मंटो में कमज़ोरियाँ मौजूद हैं, वो ख़ुर्द-बीन से देख देखकर बाहर निकालता और दूसरों को दिखाता रहेगा।

लीडर जब आँसू बहा कर लोगों से कहते हैं कि मज़हब ख़तरे में है तो इसमें कोई हक़ीक़त नहीं होती। मज़हब ऐसी चीज़ ही नहीं कि ख़तरे में पड़ सके, अगर किसी बात का ख़तरा है तो वो लीडरों का है जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए मज़हब को ख़तरे में डालते हैं।

याद रखिए ग़ुर्बत लानत नहीं है जो उसे लानत ज़ाहिर करते हैं वो ख़ुद मल्ऊन हैं। वो ग़रीब उस अमीर से लाख दर्जे बेहतर है जो अपनी कश्ती ख़ुद अपने हाथों से खेता है...

जिस तरह घर के नौकर झटपट अपने आक़ाओं के बिस्तर लगा कर अपने आराम का ख़्याल करते हैं। ठीक उसी तरह वेश्या भी अपने ग्राहकों को निमटा कर अपनी ख़ुशी और राहत की तरफ़ पलट आती है।

मैं अदब और फ़िल्म को एक ऐसा मय-ख़ाना समझता हूँ, जिसकी बोतलों पर कोई लेबल नहीं होता।

भूक किसी क़िस्म की भी हो, बहुत ख़तरनाक है... आज़ादी के भूकों को अगर गु़लामी की ज़ंजीरें ही पेश की जाती रहीं तो इन्क़िलाब ज़रूर बरपा होगा... रोटी के भूके अगर फ़ाक़े ही खींचते रहे तो वो तंग आकर दूसरे का निवाला ज़रूर छीनेंगे... मर्द की नज़रों को अगर औरत के दीदार का भूका रखा गया तो शायद वो अपने हम-जिंसों और हैवानों ही में उसका अक्स देखने की कोशिश करें।

सियासत और मज़हब की लाश हमारे नामवर लीडर अपने कँधों पर उठाए फिरते हैं और सीधे सादे लोगों को जो हर बात मान लेने के आदी होते हैं ये कहते फिरते हैं कि वो इस लाश को अज़ सर-ए-नौ ज़िंदगी बख़्श रहे हैं।

ज़बान और अदब की ख़िदमत हो सकती है सिर्फ़ अदीबों और ज़बान-दानों की हौसला-अफ़ज़ाई से। और हौसला-अफ़ज़ाई सिर्फ उनकी मेहनत का मुआवज़ा अदा करने ही से हो सकती है।

अगर हम साबुन और लैविन्डर का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन मौर्यों और बदरुओं का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जो हमारे बदन का मैल पीती हैं। अगर हम मंदिरों और मस्जिदों का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन क़हबा-ख़ानों का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जहाँ से लौट कर कई इन्सान मंदिरों और मस्जिदों का रुख़ करते हैं... अगर हम अफ़्यून, चरस, भंग और शराब के ठेकों का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन कोठों का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जहाँ हर क़िस्म का नशा इस्तिमाल किया जाता है।

वेश्या सिर्फ़ उसी मर्द पर अपने दिल के तमाम दरवाज़े खोलेगी, जिससे उसे मुहब्बत हो। हर आने जाने वाले मर्द के लिए वो ऐसा नहीं कर सकती।

वेश्या को सिर्फ़ बाहर से देखा जाता है। इस के रंग-रूप, उस की भड़कीली पोशाक, आराइश-ओ-ज़ेबाइश देखकर यही नतीजा निकाला जाता है कि वो ख़ुशहाल है। लेकिन ये दरुस्त नहीं।

कोई ज़ी-अक़ल और साहिब-ए-होश-ओ-फ़हम इन्सान ख़ून बहाना पसंद नहीं करता सिवाए उनके जो अपने अज़हान की आग़ोश में भयानक जराइम-ओ-शदायद की परवरिश करते हैं।

जिस्मानी हिसिय्यात से मुताल्लिक़ चीज़ें ज़्यादा देरपा नहीं होतीं मगर जिन चीज़ों का ताल्लुक़ रूह से होता है, देर तक क़ायम रहती हैं।

जिस्म दाग़ा जा सकता है मगर रूह नहीं दाग़ी जा सकती।

भूक किसी क़िस्म की भी हो, बहुत ख़तरनाक है।

गुनाह या सवाब इंसान की ज़ात से मुताल्लिक़ है, इस से फ़न को कोई वास्ता नहीं।

आदमी या तो आदमी है वरना आदमी नहीं है, गधा है, मकान है, मेज़ है, या और कोई चीज़ है।

वेश्या या तवाइफ़ अपने तिजारती उसूलों के मातहत हर मर्द से जो उस के पास गाहक के तौर पर आता है, ज़्यादा से ज़्यादा नफ़ा हासिल करने की कोशिश करेगी। अगर वो मुनासिब दामों पर या हैरत-अंगेज़ क़ीमत पर अपना माल बेचती है तो ये उस का पेशा है। बनिया भी तो सौदा तौलते वक़्त डंडी मार जाता है। बाअज़ दुकानें ज़्यादा क़ीमत पर अपना माल बेचती हैं बाअज़ कम क़ीमत पर।

ताज्जुब तो इस बात का है कि जब सदियों से हम ये सुन रहे हैं कि वेश्या का डसा हुआ पानी नहीं मांगता तो हम क्यों अपने आपको इस से डसवाते हैं और फिर क्यों ख़ुद ही रोना पीटना शुरू कर देते हैं। वेश्या इरादतन या किसी इंतिक़ामी जज़्बे के ज़ेर-ए-असर मर्दों के माल-ओ-ज़र पर हाथ नहीं डालती। वो सौदा करती है और कमाती है।

मैं तो बाज़-औक़ात ऐसा महसूस करता हूँ कि हुकूमत और रिआया का रिश्ता रूठे हुए ख़ावंद और बीवी का रिश्ता है।

जिस औरत के दरवाज़े शहर के हर उस शख़्स के लिए खुले हैं जो अपनी जेबों में चाँदी के चंद सिक्के रखता हो। ख़्वाह वो मोची हो या भंगी, लंगड़ा हो या लूला, ख़ूबसूरत हो या करीहत-उल-मंज़र, उस की ज़िंदगी का अंदाज़ा ब-ख़ूबी लगाया जा सकता है।

सबसे बड़ी शिकायत मुझे उन अदीबों, शायरों और अफ़साना निगारों से है जो अख़बारों और रिसालों में बग़ैर मुआवज़े के मज़मून भेजते हैं। वो क्यों उस चीज़ को पालते हैं जो एक खील भी उनके मुँह में नहीं डालती। वो क्यों ऐसा काम करते हैं जिससे उनको ज़ाती फ़ायदा नहीं पहुंचता। वो क्यों उन काग़ज़ों पर नक़्श-ओ-निगार बनाते हैं जो उनके लिए कफ़न का काम भी नहीं दे सकते।

गदागरी क़ानूनन बंद कर दी जाती है, मगर वो अस्बाब-ओ-एलल दूर करने की कोशिश नहीं की जाती जो इन्सान को इस फे़अल पर मजबूर करते हैं। औरतों को सर-ए-बाज़ार जिस्म-फ़रोशी के कारोबार से रोका जाता है मगर उस के मुहर्रिकात के इस्तीसाल की तरफ़ कोई तवज्जाेह नहीं देता।

दुनिया में जितनी लानतें हैं, भूक उनकी माँ है।

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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