इब्राहीम अश्क
ग़ज़ल 18
अशआर 19
बिखरे हुए थे लोग ख़ुद अपने वजूद में
इंसाँ की ज़िंदगी का अजब बंदोबस्त था
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तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे
हम ऐसे लोग ज़माने में फिर कहाँ होंगे
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ख़ुद अपने आप से लेना था इंतिक़ाम मुझे
मैं अपने हाथ के पत्थर से संगसार हुआ
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चले गए तो पुकारेगी हर सदा हम को
न जाने कितनी ज़बानों से हम बयाँ होंगे
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करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे
इलाही इतना भी उस शख़्स को हिजाब न दे
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