इशरत ज़फ़र
ग़ज़ल 15
अशआर 8
जिधर भी जाता है वो शोला-ए-बहार-सरिश्त
दुआएँ देता है अम्बोह-ए-कुश्तगाँ उस को
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मिरे कमरे की दीवारों में ऐसे आइने भी हैं
कि जिन के पास हर शख़्स अपना चेहरा छोड़ जाता है
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वो इक लम्हा जो तेरे क़ुर्ब की ख़ुशबू से है रौशन
अब इस लम्हे को पाबंद-ए-सलासिल चाहता हूँ मैं
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सब मिरे दिल पे करम उस निगह-ए-नाज़ का है
बे-क़रारी है मिरी और न सुकूँ है मेरा
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