याक़ूब यावर
अशआर 6
अगर वो आज रात हद्द-ए-इल्तिफ़ात तोड़ दे
कभी फिर उस से प्यार का ख़याल भी न आएगा
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आज भी ज़ख़्म ही खिलते हैं सर-ए-शाख़-ए-निहाल
नख़्ल-ए-ख़्वाहिश पे वही बे-समरी रहना थी
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तू ला-मकाँ में रहे और मैं मकाँ में असीर
ये क्या कि मुझ पे इताअत तिरी हराम हुई
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लहू महका तो सारा शहर पागल हो गया है
मैं किस सफ़ से उठूँ किस के लिए ख़ंजर निकालूँ
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शहर-ए-सुख़न अजीब हो गया है
नाक़िद यहाँ अदीब हो गया है
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