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ग़ज़ल
सबा अकबराबादी
नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन
तो चश्म-ए-सुब्ह में आँसू उभरने लगते हैं