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नज़्म
तुलू-ए-इस्लाम
मियान-ए-शाख़-साराँ सोहबत-ए-मुर्ग़-ए-चमन कब तक
तिरे बाज़ू में है परवाज़-ए-शाहीन-ए-क़हस्तानी
अल्लामा इक़बाल
मर्सिया
लिखा है मुअर्रिख़ ने कि इक गब्र-ए-दिलावर
हफ़तुम से फ़िरोकश था मियान-ए-सफ़-ए-लश्कर
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
नज़्म
ऐ मेरे सारे लोगो
फिर से ''तू कौन है मैं कौन हूँ'' आपस में सवाल
फिर वही सोच मियान-ए-मन-ओ-तू फैली है
अहमद फ़राज़
नज़्म
जुगनू
मियान-ए-सहन लगाया था ला के इक पौदा
जो आब-ओ-आतिश-ओ-ख़ाक-ओ-हवा से पलता हुआ
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ग़ज़ल
मियान में उस ने जो की तेग़-ए-जफ़ा मेरे बा'द
ख़ूँ-गिरफ़्ता कोई क्या और न था मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
नज़्म
लाओ तो क़त्ल-नामा मिरा
आख़िर को आज अपने लहू पर हुई तमाम
बाज़ी मियान-ए-क़ातिल-ओ-ख़ंजर लगी हुई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मर्सिया
यूं मियान के दरमयान से बाहर हुई तलवार
जूं फूट के बाहर निकल आए बदन ख़ार