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ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
यूँही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो
बशीर बद्र
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नज़्म
मुझ से पहले
मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा
खो चुका है जो किसी और की रानाई में
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ
मिरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आइने में उतार लूँ