घमंड पर शेर
ग़ुरूर ज़िंदगी जीने
का एक मनफ़ी रवव्या है। आदमी जब ख़ुद पसंदी में मुब्तिला हो जाता है तो उसे अपनी ज़ात के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। शायरी में जिस ग़ुरूर को कसरत से मौज़ू बनाया गया है वह महबूब का इख़्तियार-कर्दा ग़ुरूर है। महबूब अपने हुस्न, अपनी चमक दमक, अपने चाहे जाने और अपने चाहने वालों की कसरत पर ग़ुरूर करता है और अपने आशिक़ों को अपने इस रवय्ये से दुख पहुँचाता है। एक छोटा सा शेरी इन्तिख़ाब आप के लिए हाज़िर है।
आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है
भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है
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टैग्ज़ : प्रेरणादायकऔर 2 अन्य
अदा आई जफ़ा आई ग़ुरूर आया हिजाब आया
हज़ारों आफ़तें ले कर हसीनों पर शबाब आया
आसमानों में उड़ा करते हैं फूले फूले
हल्के लोगों के बड़े काम हवा करती है
रोज़ दीवार में चुन देता हूँ मैं अपनी अना
रोज़ वो तोड़ के दीवार निकल आती है
वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है
कि सारी बात मोहब्बत में रख-रखाव की थी
ये सोच के दानिस्ता रहा उस से बहुत दूर
मग़रूर है दरिया मुझे प्यासा न समझ ले
ज़ो'म कितना करते हो इक चराग़ पर अपने
और हवा के चलने में देर कितनी लगती है
रंगीनी-ओ-नुज़हत पे न मग़रूर हो बुलबुल
है रंग बहार-ए-चमनिस्ताँ कोई दिन और
पड़े हैं फीके ये चाँद तारे भी इस के आगे
कहाँ से लाई हो तुम ये हुस्न-ओ-जमाल लड़की
बुलंदियों पर ज़रा तकब्बुर से दूर रहना
वगरना ये ही बनेगा वज्ह-ए-ज़वाल लड़की
ग़ुरूर तोड़ा है रावन का मेरे अंगद ने
हिला सके न जो पा को पचास हो कर भी
ज़ब्त-ए-ग़म वुफ़ूर-ए-शौक़ और दिल-ए-ना-सुबूर-ए-इश्क़
मुझ को तो है ग़ुरूर-ए-इश्क़ आप को नाज़ हो न हो