शोहरत पर शेर
मशहूर हो जाने की ख़्वाहिश
हर किसी की होती है लेकिन इस ख़्वाहिश को ग़लत तरीक़ों से पूरा करने की कोशिश बहुत सी इन्सानी क़द्रों की पायमाली का बाइस बनती है। ये शेरी इन्तिख़ाब शोहरत की अच्छी बुरी सूरतों को सामने लाता है।
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही
किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है ऐ 'वाहिद'
उन्हीं के नाम हैं दुनिया में जिन के काम अच्छे हैं
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हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम
बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा
अब तू दरवाज़े से अपने नाम की तख़्ती उतार
लफ़्ज़ नंगे हो गए शोहरत भी गाली हो गई
उस घर की बदौलत मिरे शेरों को है शोहरत
वो घर कि जो इस शहर में बदनाम बहुत है
क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
क्या तुम ने कभी 'दाग़' का दीवाँ नहीं देखा
उलझ रहे हैं बहुत लोग मेरी शोहरत से
किसी को यूँ तो कोई मुझ से इख़्तिलाफ़ न था
वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे
उन की शोहरत है मेरी रुस्वाई
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
परवाज़ न खो जाए इन ऊँची उड़ानों में
खुली न मुझ पे भी दीवानगी मिरी बरसों
मिरे जुनून की शोहरत तिरे बयाँ से हुई
मेरी शोहरत के पीछे है
हाथ बहुत रुस्वाई का
बिकता रहता सर-ए-बाज़ार कई क़िस्तों में
शुक्र है मेरे ख़ुदा ने मुझे शोहरत नहीं दी
अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
उस ने किरदार बदल कर मिरा क़िस्सा लिख्खा
मियाँ ये चादर-ए-शोहरत तुम अपने पास रखो
कि इस से पाँव जो ढाँपें तो सर निकलता है
मुझ से ये पूछ रहे हैं मिरे अहबाब 'अज़ीज़'
क्या मिला शहर-ए-सुख़न में तुम्हें शोहरत के सिवा
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
मेरी रुस्वाई से शोहरत कू-ब-कू उस की भी थी
बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है
बहुत ऊँची 'इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है
कौन मस्लूब हुआ हुस्न का किरदार कि हम
शोहरत-ए-इश्क़ में बदनाम हुआ यार कि हम
'फ़रहत' तिरे नग़मों की वो शोहरत है जहाँ में
वल्लाह तिरा रंग-ए-सुख़न याद रहेगा
जो आसमाँ की बुलंदी को छूने वाला था
वही मिनारा ज़मीं पर धड़ाम से आया
खो दिया शोहरत ने अपनी शेर-ख़्वानी का मज़ा
दाद मिल जाती है 'नातिक़' हर रतब याबिस के बा'द