रोने वालों से कहो उन का भी रोना रो लें
जिन को मजबूरी-ए-हालात ने रोने न दिया
ये ज़िंदगी जो पुकारे तो शक सा होता है
कहीं अभी तो मुझे ख़ुद-कुशी नहीं करनी
किसी ने फिर से लगाई सदा उदासी की
पलट के आने लगी है फ़ज़ा उदासी की
ग़म का साथी कौन है ये सोच कर तन्हा था मैं
साथ लेकिन मेरे 'नश्तर' रो रही थी चाँदनी
जादा-ए-ग़म में आरज़ू के सिवा
हम-सफ़र दूसरा नहीं होता