aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
فلمی دنیا اور ترقی پسند ادب کی معروف شخصیت کیفی اعظمی کو اردو شاعری میں اپنی سیاسی فکر اور پیکر تراشی کے باعث منفرد مقام حاصل ہے۔انھوں نے ابتدا رومانی شاعری سےکی لیکن بعد میں ہنگامی واقعات سے متاثر ہوکر سیاسی ، قومی اور ترقی پسند یت کے موضوعات کو شاعرانہ پیرائیہ میں ڈھالا۔ کیفی اعظمی کی نظمیں ہنگامی واقعات کے عکاسی کے ساتھ دلچسپ اور موثر ہیں۔ان کی شاعری بالخصوص نظموں میں الفاظ سے زیادہ پیکر تراشی ملتی ہے۔انھوں نے عوام کے سکھ دکھ کو اپنی نظموں میں فن اور موضوع کے امتزاج کے ساتھ پیش کیا ہے۔زیر مطالعہ کیفی اعظمی کےنظموں پر مشتمل شعری مجموعہ "سرمایہ" ہے۔ یہ نظمیں ان کے قومی ، انقلابی ،سیاسی نظریات اور عہد کی عمدہ عکاس ہیں۔"طلوع شعر " کے عنوان کے تحت ابتدائی کلام بھی شامل مجموعہ ہے۔" طلوع آگہی" کے تحت جدو جہد آزادی کا پیغام دیتی نظمیں شامل ہیں۔ اس کے علاوہ مجموعہ میں شامل تمام نظمیں اپنے منفرد اسلوب، متنوع موضوع اور زبان کی سلاست کے ساتھ موثر اور دلچسپ ہیں۔
कैफ़ी आज़मी उर्दू के प्रसिद्ध प्रगतिवादी शायर और गीतकार हैं। उनका असल नाम सैयद अतहर हुसैन रिज़वी था। कैफ़ी तख़ल्लुस करते थे। उनकी पैदाइश मौज़ा मजवाँ ज़िला आज़मगढ़ में हुई। कैफ़ी का ख़ानदान एक ज़मींदार ख़ुशहाल ख़ानदान था। घर में शिक्षा व साहित्य और शे’र-ओ-शायरी का माहौल था। ऐसे माहौल में जब उन्होंने आंखें खोलीं तो आरम्भ से ही उन्हें शे’र-ओ-अदब से दिलचस्पी हो गयी। अपने समय के रिवाज के अनुसार अरबी फ़ारसी की शिक्षा प्राप्त की और शे’र कहने लगे।
कैफ़ी के पिता उन्हें मज़हबी तालीम दिलाना चाहते थे, इस उद्देश्य से उन्होंने कैफ़ी को लखनऊ में सुल्तान-उल-मदारिस में दाख़िल करा दिया। लेकिन कैफ़ी की इन्क़लाबी और प्रतिरोध स्वभाव की मंज़िलें ही कुछ और थीं। कैफ़ी ने मदरसे की स्थूल और दक़ियानूसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और विद्यार्थियों की कुछ मांगों को लेकर प्रबंधन का सामना किया। इस तरह के माहौल ने कैफ़ी के स्वभाव को और ज़्यादा इन्क़लाबी बनाया। वह ऐसी नज़्में कहने लगे जो उस वक़्त के सामाजिक व्यवस्था को निशाना बनाती थीं। लखनऊ के इस आवास के दौरान ही प्रगतिशील साहित्यकारों के साथ कैफ़ी की मुलाक़ातें होने लगीं। लखनऊ उस वक़्त प्रगतिशील लेखकों का एक प्रमुख् केन्द्र बना हुआ था।
1921 में कैफ़ी लखनऊ छोड़ कर कानपुर आ गये। यहाँ उस वक़्त मज़दूरों का आन्दोलन ज़ोरों पर था, कैफ़ी उस आन्दोलन से सम्बद्ध हो गये। कैफ़ी को कानपुर की फ़िज़ा बहुत रास आयी। यहाँ रहकर उन्होंने मार्कसी साहित्य का बहुत गहराई से अध्ययन किया। 1923 में कैफ़ी सरदार जाफ़री और सज्जाद ज़हीर के कहने पर बम्बई आ गये और विधिवत रूप से आन्दोलन और उसके कामों से सम्बद्ध हो गये।
आर्थिक परेशानियों के कारण कैफ़ी ने फ़िल्मों के लिए गीत भी लिखे। सबसे पहले कैफ़ी को शाहिद लतीफ़ की फ़िल्म ‘बुज़दिल’ में दो गाने लिखने का मौक़ा मिला। धीरे-धीरे कैफ़ी की फ़िल्मों से सम्बद्धता बढ़ती गयी। उन्होंने गानों के अलावा कहानी, संवाद और स्क्रिप्ट भी लिखे। ‘काग़ज़ के फूल’, ‘गर्म हवा’, ‘हक़ीक़त’, ‘हीर राँझा’, जैसी फ़िल्मों के नाम आज भी कैफ़ी के नाम के साथ लिये जाते हैं। फ़िल्मी दुनिया में कैफ़ी को बहुत से सम्मानों से भी नवाज़ा गया।
सज्जाद ज़हीर ने कैफ़ी के पहले ही संग्रह की शायरी के बारे में लिखा था, “आधुनकि उर्दू शायरी के बाग़ में नया फूल खिला है। एक सुर्ख़ फूल।” उस वक़्त तक कैफ़ी प्रगतिशील आंदोलन से सम्बद्ध नहीं हुए थे, लेकिन उनकी शायरी आरम्भ ही से प्रगतिवादी विचार धारा और सोच को आम करने में लगी थी। कैफ़ी ज्ञान और सृजनात्मक दोनों स्तरों पर आजीवन आन्दोलन और उसके उद्देशों से सम्बद्ध रहे। उनकी पूरी शायरी समान की विकृत व्यवस्था, शोषण की स्थितियों और मानसिक दासता के अधीन जन्म लेने वाली बुराइयों के ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त प्रतिरोध है।
काव्य संग्रहः ‘झंकार’, ‘आख़िर-ए-शब’, ‘आवारा सजदे’, ‘मेरी आवाज़ सुनो’(फिल्मी गीत), ‘इबलीस की मजलिसे शूरा’ (दूसरा इजलास)।
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