अजमल सिद्दीक़ी
ग़ज़ल 11
अशआर 11
आस पे तेरी बिखरा देता हूँ कमरे की सब चीज़ें
आस बिखरने पर सब चीज़ें ख़ुद ही उठा के रखता हूँ
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बोल पड़ता तो मिरी बात मिरी ही रहती
ख़ामुशी ने हैं दिए सब को फ़साने क्या क्या
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बाज़ार में इक चीज़ नहिं काम की मेरे
ये शहर मिरी जेब का रखता है भरम ख़ूब
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कभी ख़ौफ़ था तिरे हिज्र का कभी आरज़ू के ज़वाल का
रहा हिज्र-ओ-वस्ल के दरमियाँ तुझे खो सका न मैं पा सका
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हर एक सुब्ह वज़ू करती हैं मिरी आँखें
कि शायद आज तो आ जाए वो हबीब नज़र
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