aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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इशरत ज़फ़र

ग़ज़ल 15

अशआर 8

वो इक लम्हा जो तेरे क़ुर्ब की ख़ुशबू से है रौशन

अब इस लम्हे को पाबंद-ए-सलासिल चाहता हूँ मैं

वो मेरे राज़ मुझ में चाहता है मुन्कशिफ़ करना

मुझे मेरे घने साए में तन्हा छोड़ जाता है

मिरे कमरे की दीवारों में ऐसे आइने भी हैं

कि जिन के पास हर शख़्स अपना चेहरा छोड़ जाता है

चार जानिब चीख़ती सम्तों का शोर

हाँपते साए थकन और इन्हितात

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मिरे अक़ब में है आवाज़ा-ए-नुमू की गूँज

है दश्त-ए-जाँ का सफ़र कामयाब अपनी जगह

पुस्तकें 16

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