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परवेज़ शाहिदी

1910 - 1968 | कोलकाता, भारत

परवेज़ शाहिदी

ग़ज़ल 17

नज़्म 5

 

अशआर 8

जाने कह गए क्या आप मुस्कुराने में

है दिल को नाज़ कि जान गई फ़साने में

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मिरी ज़िंदगी की ज़ीनत हुई आफ़त-ओ-बला से

मैं वो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म हूँ जो सँवर गई हवा से

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अभी से सुब्ह-ए-गुलशन रक़्स-फ़रमा है निगाहों में

अभी पूरी नक़ाब उल्टी नहीं है शाम-ए-सहरा ने

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याद हैं आप के तोड़े हुए पैमाँ हम को

कीजिए और शर्मिंदा-ए-एहसाँ हम को

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गीत हरियाली के गाएँगे सिसकते हुए खेत

मेहनत अब ग़ारत-ए-जागीर तक पहुँची है

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क़ितआ 2

 

रुबाई 19

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