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शेर
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने
क्या शहर-ए-मोहब्बत में हज्जाम नहीं होता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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तंज़-ओ-मज़ाह
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर
हम तो अपने हैं मियाँ ग़ैर से शरमाया कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो
ज़ालिम ग़ज़ब ही होती हैं ये दिल्ली वालियाँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला