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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
हयात-ओ-मौत का पैग़ाम देता हर-नफ़स 'वासिल'
कभी रू-पोश वो होते कभी जल्वा-गरी होती
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
हँसा करते हैं अक्सर लोग दीवानों की बातों पर
जहाँ वाले नहीं समझे मोहब्बत की ज़बाँ शायद
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
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ग़ज़ल
जनाज़ा देख के 'वासिल' का हो गए बेताब
कफ़न उन्हों ने बिल-आख़िर हटा के देख लिया
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
ग़ज़ल
उन के जल्वों में जो खो जाऊँ तो ढूँडो न मुझे
कौन मिलता है किसे वासिल-ए-जानाँ हो कर
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
ग़ज़ल
इश्क़ पहले ही क़दम पर है यक़ीं से वासिल
इंतिहा अक़्ल की ये है कि गुमाँ तक पहुँचे
मोहम्मद दीन तासीर
शेर
रह-ए-वफ़ा में उन्हीं की ख़ुशी की बात करो
वो ज़िंदगी हैं तो फिर ज़िंदगी की बात करो
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
नज़्म
बादा-ए-इश्क़ से सरशार गुरु-नानक थे
वासिल-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद न होते क्यूँकर
फ़रस-ए-इश्क़ पे असवार गुरु-नानक थे
श्याम सुंदर लाल बर्क़
शेर
तिरे ख़याल में मैं हूँ मिरे ख़याल में तू
मिरे बग़ैर तिरी दास्ताँ रहे न रहे
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
वफ़ादारी ग़ुरूर-ए-बे-रुख़ी को ख़त्म कर देगी
ज़ियादा तो नहीं कुछ दिन रहें वो बद-गुमाँ शायद
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
ग़ज़ल
पा-ए-महबूब पे सर रख के हुए हम 'वासिल'
ज़िंदगी पाई नई मौत का धड़का भी गया