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बेइंतिहा लोकप्रिय शायर/अपनी रूमानी और विरोधी शायरी के लिए प्रसिद्ध

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अहमद फ़राज़ के शेर

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दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए

याद-ए-जानाँ से कोई शाम ख़ाली जाए

ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे

सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है

सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की

वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले

मैं भी पलकों पे सजा लूँगा लहू की बूँदें

तुम भी पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर-ए-हिना हो जाना

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है

कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं

अब ज़मीं पर कोई गौतम मोहम्मद मसीह

आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर

क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे

माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया

गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा

मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा

सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है

ज़िंदगी ने मुझे कुछ तुम से ज़ियादा पहना

लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र

अहमद 'फ़राज़' तुझ से कहा बहुत हुआ

याद आई है तो फिर टूट के याद आई है

कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त

इस अहद-ए-ज़ुल्म में मैं भी शरीक हूँ जैसे

मिरा सुकूत मुझे सख़्त मुजरिमाना लगा

हुजूम ऐसा कि राहें नज़र नहीं आतीं

नसीब ऐसा कि अब तक तो क़ाफ़िला हुआ

ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़'

उस का ये कहना कि तू शाएर है दीवाना नहीं

उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ

अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त

मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं

भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब

कि जैसे तू ने हथेली पे गाल रक्खा है

शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर

मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला

शाइ'री ताज़ा ज़मानों की है मे'मार 'फ़राज़'

ये भी इक सिलसिला-ए-कुन-फ़यकूँ है यूँ है

इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब

इतना याद कि तुझे भूल जाएँ हम

रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई

ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का

रात भर हँसते हुए तारों ने

उन के आरिज़ भी भिगोए होंगे

इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'

अपने ही अहद में एक शख़्स फ़साना बन जाए

अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उमीदें

ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए

कितने नादाँ हैं तिरे भूलने वाले कि तुझे

याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं

चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं

आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर

जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे

ये शहर मेरे लिए अजनबी था लेकिन

तुम्हारे साथ बदलती गईं फ़ज़ाएँ भी

दो घड़ी उस से रहो दूर तो यूँ लगता है

जिस तरह साया-ए-दीवार से दीवार जुदा

हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा

कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे

मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया

कि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था

तेरी बातें ही सुनाने आए

दोस्त भी दिल ही दुखाने आए

सो देख कर तिरे रुख़्सार लब यक़ीं आया

कि फूल खिलते हैं गुलज़ार के अलावा भी

फ़ज़ा उदास है रुत मुज़्महिल है मैं चुप हूँ

जो हो सके तो चला किसी की ख़ातिर तू

कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे

तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा

चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का

सो गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़

लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़

मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल चाहने पर भी

तिरे लिए मिरे दिल से दुआ निकलती है

मर गए प्यास के मारे तो उठा अब्र-ए-करम

बुझ गई बज़्म तो अब शम्अ जलाता क्या है

ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया

अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था

जब भी ज़मीर-ओ-ज़र्फ़ का सौदा हो दोस्तो

क़ाएम रहो हुसैन के इंकार की तरह

इस इंतिहा-ए-क़ुर्ब ने धुँदला दिया तुझे

कुछ दूर हो कि देख सुकूँ तेरा बाँकपन

किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ 'फ़राज़' कब तक

जो तुम्हें भुला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ

किसे ख़बर वो मोहब्बत थी या रक़ाबत थी

बहुत से लोग तुझे देख कर हमारे हुए

मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते

है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला

सुना है उस को भी है शेर शाइरी से शग़फ़

सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए

फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए

तू इतनी दिल-ज़दा तो थी शब-ए-फ़िराक़

तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम

'फ़राज़' तर्क-ए-तअल्लुक़ तो ख़ैर क्या होगा

यही बहुत है कि कम कम मिला करो उस से

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