राहत इंदौरी
ग़ज़ल 67
अशआर 44
उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है
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दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए
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न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा
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हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
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चित्र शायरी 11
काम सब ग़ैर-ज़रूरी हैं जो सब करते हैं और हम कुछ नहीं करते हैं ग़ज़ब करते हैं आप की नज़रों में सूरज की है जितनी अज़्मत हम चराग़ों का भी उतना ही अदब करते हैं हम पे हाकिम का कोई हुक्म नहीं चलता है हम क़लंदर हैं शहंशाह लक़ब करते हैं देखिए जिस को उसे धुन है मसीहाई की आज कल शहर के बीमार मतब करते हैं ख़ुद को पत्थर सा बना रक्खा है कुछ लोगों ने बोल सकते हैं मगर बात ही कब करते हैं एक इक पल को किताबों की तरह पढ़ने लगे उम्र भर जो न किया हम ने वो अब करते हैं
मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं मगर उसे तो ख़बर है कि कुछ नहीं हूँ मैं अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझ को वहाँ पे ढूँड रहे हैं जहाँ नहीं हूँ मैं मैं आइनों से तो मायूस लौट आया था मगर किसी ने बताया बहुत हसीं हूँ मैं वो ज़र्रे ज़र्रे में मौजूद है मगर मैं भी कहीं कहीं हूँ कहाँ हूँ कहीं नहीं हूँ मैं वो इक किताब जो मंसूब तेरे नाम से है उसी किताब के अंदर कहीं कहीं हूँ मैं सितारो आओ मिरी राह में बिखर जाओ ये मेरा हुक्म है हालाँकि कुछ नहीं हूँ मैं यहीं हुसैन भी गुज़रे यहीं यज़ीद भी था हज़ार रंग में डूबी हुई ज़मीं हूँ मैं ये बूढ़ी क़ब्रें तुम्हें कुछ नहीं बताएँगी मुझे तलाश करो दोस्तो यहीं हूँ मैं