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ग़ज़ल
पारा-ए-मुसहफ़-ए-दिल थे तिरे कूचे में पड़े
आते पाँव के तले शुक्र कि पाए तो सही
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
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ग़ज़ल
आशिक़-ए-ज़ुल्फ़ को दो बोसा-ए-ख़त्त-ओ-अब्रू
मुसहफ़-ए-रुख़ पे लिखूँ ज़ेर-ओ-ज़बर आज की रात
नसीम मैसूरी
ग़ज़ल
छुपाना क्या एक का था मंज़ूर आज तक हैं जो चार मशहूर
ज़बूर तौरेत मुसहफ़ इंजील पाँचवीं है किताब-ए-आरिज़
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
खुल गया मुसहफ़-ए-रुख़्सार-ए-बुतान-ए-मग़रिब
हो गए शैख़ भी हाज़िर नई तफ़्सीर के साथ