Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
Ameer Minai's Photo'

अमीर मीनाई

1829 - 1900 | हैदराबाद, भारत

दाग़ देहलवी के समकालीन। अपनी ग़ज़ल ' सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता ' के लिए प्रसिद्ध हैं।

दाग़ देहलवी के समकालीन। अपनी ग़ज़ल ' सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता ' के लिए प्रसिद्ध हैं।

अमीर मीनाई के शेर

81.2K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

नावक-ए-नाज़ से मुश्किल है बचाना दिल का

दर्द उठ उठ के बताता है ठिकाना दिल का

'अमीर' अब हिचकियाँ आने लगी हैं

कहीं मैं याद फ़रमाया गया हूँ

मुश्किल बहुत पड़ेगी बराबर की चोट है

आईना देखिएगा ज़रा देख-भाल के

कौन सी जा है जहाँ जल्वा-ए-माशूक़ नहीं

शौक़-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर

कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते

मैं ने तो रक़ीबों से सुना और ही कुछ है

हो गया बंद दर-ए-मै-कदा क्या क़हर हुआ

शौक़-ए-पा-बोस-ए-हसीनाँ जो तुझे था दिल

तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ का क़िस्सा पूछिए

महशर तलक कहूँ मैं अगर मुख़्तसर कहूँ

सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर'

जब तक शेर कहने का हम को शुऊर था

अपनी महफ़िल से अबस हम को उठाते हैं हुज़ूर

चुपके बैठे हैं अलग आप का क्या लेते हैं

पुतलियाँ तक भी तो फिर जाती हैं देखो दम-ए-नज़अ

वक़्त पड़ता है तो सब आँख चुरा जाते हैं

फ़ुर्क़त में मुँह लपेटे मैं इस तरह पड़ा हूँ

जिस तरह कोई मुर्दा लिपटा हुआ कफ़न में

बातें नासेह की सुनीं यार के नज़्ज़ारे किए

आँखें जन्नत में रहीं कान जहन्नम में रहे

आहों से सोज़-ए-इश्क़ मिटाया जाएगा

फूँकों से ये चराग़ बुझाया जाएगा

फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया

फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का

ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'

सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है

मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र

आज आप एक बात मिरी मान जाइए

जब कहीं दो गज़ ज़मीं देखी ख़ुदी समझा मैं गोर

जब नई दो चादरें देखीं कफ़न याद गया

उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो

हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो

ख़ुश्क सेरों तन-ए-शाएर का लहू होता है

तब नज़र आती है इक मिस्रा-ए-तर की सूरत

तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के

हमारे मय-कदे में रात दिन रहमत बरसती है

किसी रईस की महफ़िल का ज़िक्र ही क्या है

ख़ुदा के घर भी जाएँगे बिन बुलाए हुए

हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे

ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे

कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं

नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है

अभी आए अभी जाते हो जल्दी क्या है दम ले लो

छेड़ूँगा मैं जैसी चाहे तुम मुझ से क़सम ले लो

वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है

आज की बात को क्यूँ कल पे उठा रक्खा है

कबाब-ए-सीख़ हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं

जल उठता है जो ये पहलू तो वो पहलू बदलते हैं

मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से

जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं

समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का

धुआँ लगता है आँखों में किसी के दिल के जलने का

मिरा ख़त उस ने पढ़ा पढ़ के नामा-बर से कहा

यही जवाब है इस का कोई जवाब नहीं

कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद

याद आएगी बहुत मेरी वफ़ा मेरे बाद

वाइज़ हज्व कर एक दिन दुनिया से जाना है

अरे मुँह साक़ी-ए-कौसर को भी आख़िर दिखाना है

जी लगे आप का ऐसा कि कभी जी भरे

दिल लगा कर जो सुनें आप फ़साना दिल का

गिरह से कुछ नहीं जाता है पी भी ले ज़ाहिद

मिले जो मुफ़्त तो क़ाज़ी को भी हराम नहीं

काबा भी हम गए गया पर बुतों का इश्क़

इस दर्द की ख़ुदा के भी घर में दवा नहीं

हाथ रख कर मेरे सीने पे जिगर थाम लिया

तुम ने इस वक़्त तो गिरता हुआ घर थाम लिया

तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर

सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर

ख़ुशामद दिल-ए-बेताब इस तस्वीर की कब तक

ये बोला चाहती है पर बोलेगी बोली है

अल्लाह-रे सादगी नहीं इतनी उन्हें ख़बर

मय्यत पे के पूछते हैं इन को क्या हुआ

लचक है शाख़ों में जुम्बिश हवा से फूलों में

बहार झूल रही है ख़ुशी के फूलों में

हम जो पहुँचे तो लब-ए-गोर से आई ये सदा

आइए आइए हज़रत बहुत आज़ाद रहे

ख़ुदा ने नेक सूरत दी तो सीखो नेक बातें भी

बुरे होते हो अच्छे हो के ये क्या बद-ज़बानी है

'अमीर' जाते हो बुत-ख़ाने की ज़ियारत को

पड़ेगा राह में का'बा सलाम कर लेना

हिलाल बद्र दोनों में 'अमीर' उन की तजल्ली है

ये ख़ाका है जवानी का वो नक़्शा है लड़कपन का

गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला कर कहा

वाह सर चढ़ने लगी पाँव की ठुकराई हुई

छेड़ देखो मिरी मय्यत पे जो आए तो कहा

तुम वफ़ादारों में हो या मैं वफ़ादारों में हूँ

ज़ानू पर 'अमीर' सर को रक्खे

पहरों गुज़रे कि रो रहे हैं

ख़ून-ए-नाहक़ कहीं छुपता है छुपाए से 'अमीर'

क्यूँ मिरी लाश पे बैठे हैं वो दामन डाले

अल्लाह-री नज़ाकत-ए-जानाँ कि शेर में

मज़मूँ बंधा कमर का तो दर्द-ए-कमर हुआ

जो चाहिए सो माँगिये अल्लाह से 'अमीर'

उस दर पे आबरू नहीं जाती सवाल से

आबरू शर्त है इंसाँ के लिए दुनिया में

रही आब जो बाक़ी तो है गौहर पत्थर

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

GET YOUR PASS
बोलिए