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अमीर मीनाई

1829 - 1900 | हैदराबाद, भारत

दाग़ देहलवी के समकालीन। अपनी ग़ज़ल ' सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता ' के लिए प्रसिद्ध हैं।

दाग़ देहलवी के समकालीन। अपनी ग़ज़ल ' सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता ' के लिए प्रसिद्ध हैं।

अमीर मीनाई

ग़ज़ल 44

अशआर 124

तुम को आता है प्यार पर ग़ुस्सा

मुझ को ग़ुस्से पे प्यार आता है

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कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं

नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है

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गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'

क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना

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वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर

दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए

उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो

हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो

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नअत 4

 

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Na shauq e wasal ka da_wa

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अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है

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उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ

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अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है

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