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कामिल बहज़ादी

1934 | भोपाल, भारत

कामिल बहज़ादी

ग़ज़ल 5

 

अशआर 6

आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया

मैं इस क़दर उड़ा कि ख़लाओं में खो गया

तअल्लुक़ है अब तर्क-ए-तअल्लुक़

ख़ुदा जाने ये कैसी दुश्मनी है

इस क़दर मैं ने सुलगते हुए घर देखे हैं

अब तो चुभने लगे आँखों में उजाले मुझ को

क्या तिरे शहर के इंसान हैं पत्थर की तरह

कोई नग़्मा कोई पायल कोई झंकार नहीं

लोग भोपाल की तारीफ़ किया करते हैं

इस नगर में तो तिरे घर के सिवा कुछ भी नहीं

पुस्तकें 3

 

चित्र शायरी 1

 

ऑडियो 5

आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया

एक भटके हुए लश्कर के सिवा कुछ भी नहीं

ये किस ने दूर से आवाज़ दी है

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