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मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा

1789 - 1868 | दिल्ली, भारत

मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा

ग़ज़ल 14

नज़्म 1

 

अशआर 8

दिल तमाम नफ़अ' है सौदा-ए-इश्क़ में

इक जान का ज़ियाँ है सो ऐसा ज़ियाँ नहीं

वो और वा'दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं

सच सच बता ये लफ़्ज़ उन्ही की ज़बाँ के हैं

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'आज़ुर्दा' मर के कूचा-ए-जानाँ में रह गया

दी थी दुआ किसी ने कि जन्नत में घर मिले

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इस दर्द-ए-जुदाई से कहीं जान निकल जाए

'आज़ुर्दा' मिरे हक़ में ज़रा यूँ भी दुआ कर

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नासेह यहाँ ये फ़िक्र है सीना भी चाक हो

है फ़िक्र-ए-बख़िया तुझ को गरेबाँ के चाक में

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