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सय्यद शकील दस्नवी

1941 | ओड़ीशा, भारत

सय्यद शकील दस्नवी

ग़ज़ल 19

नज़्म 5

 

अशआर 7

रिश्ता रहा अजीब मिरा ज़िंदगी के साथ

चलता हो जैसे कोई किसी अजनबी के साथ

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मौत के खूँ-ख़्वार पंजों में सिसकती है हयात

आज है इंसानियत की हर अदा सहमी हुई

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गर्द-ए-सफ़र के साथ था वाबस्ता इंतिज़ार

अब तो कहीं ग़ुबार भी बाक़ी नहीं रहा

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उस से बछड़ा तो यूँ लगा जैसे

कोई मुझ में बिखर गया साहब

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'शकील' हिज्र के ज़ीनों पे रुक गईं यादें

इसी मक़ाम पर कर ठहर गई शब भी

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