वक़ार मानवी
ग़ज़ल 18
अशआर 12
अब के 'वक़ार' ऐसे बिछड़े हैं
मिलने का इम्कान नहीं है
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मैं ज़िंदगी को लिए फिर रहा हूँ कब से 'वक़ार'
ये बोझ अब मिरे सर से उतरना चाहता है
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सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो
नहीं तो चुप भली है लब न खोलो
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हमारी ज़िंदगी कहने की हद तक ज़िंदगी है बस
ये शीराज़ा भी देखा जाए तो बरहम है बरसों से
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हर ग़म सहना और ख़ुश रहना
मुश्किल है आसान नहीं है
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