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ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
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नज़्म
दो इश्क़
ढूँडी है यूँही शौक़ ने आसाइश-ए-मंज़िल
रुख़्सार के ख़म में कभी काकुल की शिकन में
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मिरी रातों की ख़ुनकी है तिरे गेसू-ए-पुर-ख़म में
ये बढ़ती छाँव भी कितनी घनी मालूम होती है