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नज़्म
कार्ल मार्क्स
कितने दोज़ख़ उस के इक मंशूर से जन्नत बने
कितने सहराओं को जिस ने कर दिया शहर-ए-गुलाब
वामिक़ जौनपुरी
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ग़ज़ल
ग़सब-शुदा हक़ पे चुप न रहना हमारा मंशूर हो गया है
उठेगा अब शोर हर सितम पर दबी सदाएँ नहीं रहेंगी
हबीब जालिब
ग़ज़ल
यही मंशूर-ए-मोहब्बत है कि वो पैकर-ए-ज़ुल्म
जिस को नफ़रत से नवाज़े मैं उसे प्यार करूँ