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अमीर हम्ज़ा साक़िब

1971 | भिवंडी, भारत

नई नस्ल के महत्वपूर्ण शायर।

नई नस्ल के महत्वपूर्ण शायर।

अमीर हम्ज़ा साक़िब

ग़ज़ल 81

अशआर 13

तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का

तुम्हारे ज़िक्र को सब शर्त-ए-फ़न बनाते हैं

तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार

तब ख़ानक़ाह-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में आए हैं

तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर

चेहरों पे अपने वर्ना तो बरसों का ज़ंग था

ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की

नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं

मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है

वर्ना ये दुनिया कहाँ हुस्न-ए-तलब थी मेरा

लेख 1

 

पुस्तकें 5

 

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