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सज्जाद बाक़र रिज़वी

1928 - 1992 | कराची, पाकिस्तान

सज्जाद बाक़र रिज़वी

ग़ज़ल 57

नज़्म 6

अशआर 18

टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर

वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए

पहले चादर की हवस में पाँव फैलाए बहुत

अब ये दुख है पाँव क्यूँ चादर से बाहर गया

हमारे दम से है रौशन दयार-ए-फ़िक्र-ओ-सुख़न

हमारे बाद ये गलियाँ धुआँ धुआँ होंगी

मिरा ग़ज़ाल कि वहशत थी जिस को साए से

लिपट गया मिरे सीने से आदमी की तरह

मैं हम-नफ़साँ जिस्म हूँ वो जाँ की तरह था

मैं दर्द हूँ वो दर्द के उनवाँ की तरह था

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