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jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अहमद वसी

ग़ज़ल 5

 

नज़्म 7

अशआर 18

अपनी ही ज़ात के सहरा में आज

लोग चुप-चाप जला करते हैं

जो चेहरे दूर से लगते हैं आदमी जैसे

वही क़रीब से पत्थर दिखाई देते हैं

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में साँस साँस हूँ घायल ये कौन मानेगा

बदन पे चोट का कोई निशान भी तो नहीं

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मुद्दत के बा'द आइना कल सामने पड़ा

देखी जो अपनी शक्ल तो चेहरा उतर गया

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लोग हैरत से मुझे देख रहे हैं ऐसे

मेरे चेहरे पे कोई नाम लिखा हो जैसे

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पुस्तकें 5

 

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