अब्दुल्लाह कमाल
ग़ज़ल 21
नज़्म 1
अशआर 9
इक मुसलसल जंग थी ख़ुद से कि हम ज़िंदा हैं आज
ज़िंदगी हम तेरा हक़ यूँ भी अदा करते रहे
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चमक दे चाँद को ठंडक हवा को दिल को उमंग
उदास क़िस्से को फिर एक शाहज़ादा दे
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तुम तो ऐ ख़ुशबू हवाओ उस से मिल कर आ गईं
एक हम थे ज़ख़्म-ए-तन्हाई हरा करते रहे
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