इस्माइल मेरठी
ग़ज़ल 49
नज़्म 27
अशआर 60
अंदेशा है कि दे न इधर की उधर लगा
मुझ को तो ना-पसंद वतीरे सबा के हैं
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क्या हो गया इसे कि तुझे देखती नहीं
जी चाहता है आग लगा दूँ नज़र को मैं
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शैख़ और बरहमन में अगर लाग है तो हो
दोनों शिकार-ए-ग़म्ज़ा उसी दिल-रुबा के हैं
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