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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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संदीप गुप्ते

1961 | भोपाल, भारत

संदीप गुप्ते

ग़ज़ल 9

अशआर 12

आँधियाँ आईं उठा कर ले गईं सब बस्तियाँ

मैं ने इक दिल में बनाया था मकाँ अच्छा हुआ

तू कहाँ रहती है पूछा था किसी ने एक दिन

मैं ग़मों के साथ रहती हूँ ख़ुशी कहने लगी

दुल्हन की मेहंदी जैसी है उर्दू ज़बाँ की शक्ल

ख़ुशबू बिखेरता है इबारत का हर्फ़ हर्फ़

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मैं तुम्हारे शहर की तहज़ीब से वाक़िफ़ था

पत्थरों से की नहीं थी गुफ़्तुगू पहले कभी

हम एहतियात की ऐसी मिसाल देते हैं

तुम्हारा ज़िक्र भी आया तो टाल देते हैं

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