नक़ाब शायरी
नक़ाब को क्लासिकी शायरी में बहुत दिल-चस्प तरीक़ों से मौज़ू बनाया गया है। महबूब है कि अपने हुस्न को नक़ाब से छाए रहता है और आशिक़-ए-दीदार को तरसता है और कभी ऐसा भी होता है कि नक़ाब भी महबूब के हुस्न को छुपा नहीं पाता और उसे छुपाए रखने की तमाम कोशिशें ना-काम हो जाती हैं। ऐसे और भी मज़ेदार गोशे नक़ाब पर की जाने वाली शायरी के इस इंतिख़ाब में हैं। आप पढ़िए और लुत्फ़ लीजिए।
इतने हिजाबों पर तो ये आलम है हुस्न का
क्या हाल हो जो देख लें पर्दा उठा के हम
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
आँखें ख़ुदा ने दी हैं तो देखेंगे हुस्न-ए-यार
कब तक नक़ाब रुख़ से उठाई न जाएगी
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
the veil slips from her visage at such a gentle pace
as though the sun emerges from a cloud's embrace
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर
हम तो अपने हैं मियाँ ग़ैर से शरमाया कर
अभी रात कुछ है बाक़ी न उठा नक़ाब साक़ी
तिरा रिंद गिरते गिरते कहीं फिर सँभल न जाए
as yet the night does linger on do not remove your veil
lest your besotten follower re-gains stability
तसव्वुर में भी अब वो बे-नक़ाब आते नहीं मुझ तक
क़यामत आ चुकी है लोग कहते हैं शबाब आया
ख़ोल चेहरों पे चढ़ाने नहीं आते हम को
गाँव के लोग हैं हम शहर में कम आते हैं
इस दौर में इंसान का चेहरा नहीं मिलता
कब से मैं नक़ाबों की तहें खोल रहा हूँ
इसी उम्मीद पर तो जी रहे हैं हिज्र के मारे
कभी तो रुख़ से उट्ठेगी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
तुम जो पर्दे में सँवरते हो नतीजा क्या है
लुत्फ़ जब था कि कोई देखने वाला होता
नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है
वो निकली धूप साया जा रहा है
from the confines of the veil your face is now being freed
lo sunshine now emerges, the shadows now recede
नक़ाब कहती है मैं पर्दा-ए-क़यामत हूँ
अगर यक़ीन न हो देख लो उठा के मुझे
तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल
सदक़े उस चाँद सी सूरत पे न हो जाए बहार
किसी में ताब कहाँ थी कि देखता उन को
उठी नक़ाब तो हैरत नक़ाब हो के रही
दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
क्या होगा जो उल्टेंगे वो रुख़ से नक़ाब आख़िर
उठ ऐ नक़ाब-ए-यार कि बैठे हैं देर से
कितने ग़रीब दीदा-ए-पुर-नम लिए हुए
गो हवा-ए-गुलसिताँ ने मिरे दिल की लाज रख ली
वो नक़ाब ख़ुद उठाते तो कुछ और बात होती
देखता मैं उसे क्यूँकर कि नक़ाब उठते ही
बन के दीवार खड़ी हो गई हैरत मेरी
मुबहम थे सब नुक़ूश नक़ाबों की धुँद में
चेहरा इक और भी पस-ए-चेहरा ज़रूर था
ज़रा पर्दा हटा दो सामने से बिजलियाँ चमकें
मिरा दिल जल्वा-गाह-ए-तूर बन जाए तो अच्छा हो