विसाल शायरी
महबूब से विसाल की आरज़ू तो आप सबने पाल रक्खी होगी लेकिन वो आरज़ू ही क्या जो पूरी हो जाए। शायरी में भी आप देखेंगे कि बेचारा आशिक़ उम्र-भर विसाल की एक नाकाम ख़्वाहिश में ही जीता रहता है। यहाँ हमने कुछ ऐसे अशआर जमा किए हैं जो हिज्र-ओ-विसाल की इस दिल-चस्प कहानी को सिलसिला-वार बयान करते हैं। इस कहानी में कुछ ऐसे मोड़ भी हैं जो आपको हैरान कर देंगे।
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
sorrows other than love's longing does this life provide
comforts other than a lover's union too abide
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
आज देखा है तुझ को देर के बअ'द
आज का दिन गुज़र न जाए कहीं
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
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टैग्ज़ : फ़ेमस शायरीऔर 1 अन्य
जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना
वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था
भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिजक गई
ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम
विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं
शब-ए-विसाल है गुल कर दो इन चराग़ों को
ख़ुशी की बज़्म में क्या काम जलने वालों का
सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी
ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त
तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई
चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ
तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ
वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा
ओस से प्यास कहाँ बुझती है
मूसला-धार बरस मेरी जान
वो गले से लिपट के सोते हैं
आज-कल गर्मियाँ हैं जाड़ों में
वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'
जागना रात भर मुसीबत है
whether in blissful union or in separation
staying up all night, is a botheration
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
क्या बताऊँ कि मेरे दिल में है अरमाँ क्या क्या
गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने
घड़ी पर रख दिया था हाथ मैं ने
फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का
'फ़राज़' इश्क़ की दुनिया तो ख़ूब-सूरत थी
ये किस ने फ़ित्ना-ए-हिज्र-ओ-विसाल रक्खा है
अरमान वस्ल का मिरी नज़रों से ताड़ के
पहले ही से वो बैठ गए मुँह बिगाड़ के
उस से मिलने की ख़ुशी ब'अद में दुख देती है
जश्न के ब'अद का सन्नाटा बहुत खलता है
तुम कहाँ वस्ल कहाँ वस्ल की उम्मीद कहाँ
दिल के बहकाने को इक बात बना रखी है
मैं समझता हूँ कि है जन्नत ओ दोज़ख़ क्या चीज़
एक है वस्ल तिरा एक है फ़ुर्क़त तेरी
कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की 'हसरत'
बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना
दोस्त दिल रखने को करते हैं बहाने क्या क्या
रोज़ झूटी ख़बर-ए-वस्ल सुना जाते हैं
रख न आँसू से वस्ल की उम्मीद
खारे पानी से दाल गलती नहीं
आप तो मुँह फेर कर कहते हैं आने के लिए
वस्ल का वादा ज़रा आँखें मिला कर कीजिए
वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
आज की बात को क्यूँ कल पे उठा रक्खा है
कभी मौज-ए-ख़्वाब में खो गया कभी थक के रेत पे सो गया
यूँही उम्र सारी गुज़ार दी फ़क़त आरज़ू-ए-विसाल में
मिलने की ये कौन घड़ी थी
बाहर हिज्र की रात खड़ी थी
शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ
ज़बाँ थक गई गुफ़्तुगू रह गई
तिरा वस्ल है मुझे बे-ख़ुदी तिरा हिज्र है मुझे आगही
तिरा वस्ल मुझ को फ़िराक़ है तिरा हिज्र मुझ को विसाल है
जब ज़िक्र किया मैं ने कभी वस्ल का उन से
वो कहने लगे पाक मोहब्बत है बड़ी चीज़
आँखें बता रही हैं कि जागे हो रात को
इन साग़रों में बू-ए-शराब-ए-विसाल है
इक रात दिल-जलों को ये ऐश-विसाल दे
फिर चाहे आसमान जहन्नम में डाल दे
just one night give these deprived the joy of company
thereafter if you wish merge paradise and purgatory
वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
आरज़ूओं से फिरा करती हैं तक़दीरें कहीं
ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
वस्ल की शब न सही हिज्र का हंगाम तो है
ओ वस्ल में मुँह छुपाने वाले
ये भी कोई वक़्त है हया का
उसे ख़बर थी कि हम विसाल और हिज्र इक साथ चाहते हैं
तो उस ने आधा उजाड़ रक्खा है और आधा बना दिया है
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था
देख ले बुलबुल ओ परवाना की बेताबी को
हिज्र अच्छा न हसीनों का विसाल अच्छा है
उसे ख़बर है कि अंजाम-ए-वस्ल क्या होगा
वो क़ुर्बतों की तपिश फ़ासले में रखती है
हिज्र इक वक़्फ़ा-ए-बेदार है दो नींदों में
वस्ल इक ख़्वाब है जिस की कोई ताबीर नहीं
वस्ल की शब थी और उजाले कर रक्खे थे
जिस्म ओ जाँ सब उस के हवाले कर रक्खे थे
हर इश्क़ के मंज़र में था इक हिज्र का मंज़र
इक वस्ल का मंज़र किसी मंज़र में नहीं था
मिरी बहार में आलम ख़िज़ाँ का रहता है
हुआ जो वस्ल तो खटका रहा जुदाई का
वस्ल की रात ख़ुशी ने मुझे सोने न दिया
मैं भी बेदार रहा ताले-ए-बेदार के साथ
दो अलग लफ़्ज़ नहीं हिज्र ओ विसाल
एक में एक की गोयाई है
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