फ़ेमस शायरी पर शेर
ये सारे अशआर आप सबने
पढ़े या सुने होंगे। इन अशआर ने एक तरह से ज़र्ब-उल-मसल की हैसियत पा ली है। उनमें से बहुत से अशआर आपको याद भी होंगे, लेकिन अपने इन पसंदीदा अशआर को एक जगह देखना यक़ीनन आपके लिए ख़ुशी का बाइस होगा।
अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
-
टैग्ज़ : प्रसिद्ध मिसरेऔर 2 अन्य
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
-
टैग्ज़ : वैलेंटाइन डेऔर 1 अन्य
जज़्बा-ए-इश्क़ सलामत है तो इंशा-अल्लाह
कच्चे धागे से चले आएँगे सरकार बंधे
बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर
अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जहाँ में
-
टैग : प्रसिद्ध मिसरे
उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे
-
टैग्ज़ : ज़र्बुल-मसलऔर 1 अन्य
ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं
-
टैग्ज़ : ज़र्बुल-मसलऔर 2 अन्य
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई
ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
-
टैग्ज़ : प्रसिद्ध मिसरेऔर 2 अन्य
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
व्याख्या
मीर अपनी सहल शायरी में कोई जोड़ नहीं रखते हैं। जिस सच्चाई और आसानी के साथ वो विषयों को बयान करने की क्षमता रखते हैं उसकी मिसाल मुश्किल ही से मिलती है।
इस शे’र में मीर ने बड़ी मासूमियत और सादगी के साथ अपने महबूब के हुस्न की तारीफ़ बयान की है। ज़ाहिर है कि हुस्न की तारीफ़ के बयान में महबूब के होंटों का बयान बहुत अहम वस्तु है। मीर अपने महबूब के होंटों की नाज़ुकी मुलाइमियत या नम्रता को बयान करते हुए उपमा देते हैं और वो उपमा गुलाब के फूल की पंखुड़ी से देते हैं। गुलाब की पंखुड़ी बहुत नाज़ुक होती हैं, बहुत नरम होती हैं, इतनी नरम और इतनी नाज़ुक होती हैं कि मीर को अपने महबूब के होंटों की बनावट बिल्कुल गुलाब की पंखुड़ी की तरह नज़र आती है। गुलाब की पंखुड़ियाँ बहुत ही उचित उपमा है, जो महबूब के होंटों के लिए दी जा सकती है और मीर ने इस मुनासिब तरीन उपमा का इस्तेमाल करके ये साबित कर दिया कि उपमा के चुनाव में भी उनका कोई बदल नहीं है।
आसान लफ़्ज़ों में कहा जाये तो बात साफ़ समझ में आती है कि मीर अपने महबूब के होंटों को गुलाब की पंखुड़ी की तरह महसूस करते हैं, उसकी नाज़ुकी की या उसकी नम्रता की वजह से और इस तरह इस उपमा ने महबूब के हुस्न का बेहतरीन नक़्शा खींच दिया है।
सुहैल आज़ाद
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
तेरा ही इंतिज़ार किया है कभी कभी
हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए
बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
व्याख्या
यह शे’र इसरार-उल-हक़ मजाज़ के मशहूर अशआर में से एक है। माथे पे आँचल होने के कई मायने हैं। उदाहरण के लिए शर्म व लाज का होना, मूल्यों का रख रखाव होना आदि और भारतीय समाज में इन चीज़ों को नारी का शृंगार समझा जाता है। मगर जब नारी के इस शृंगार को पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की कमज़ोरी समझा जाता है तो नारी का व्यक्तित्व संकट में पड़ जाता है। इसी तथ्य को शायर ने अपने शे’र का विषय बनाया है। शायर नारी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि यद्यपि तुम्हारे माथे पर शर्म व हया का आँचल ख़ूब लगता है मगर उसे अपनी कमज़ोरी मत बना। वक़्त का तक़ाज़ा है कि आप अपने इस आँचल से क्रांति का झंडा बनाएं और इस ध्वज को अपने अधिकारों के लिए उठाएं।
शफ़क़ सुपुरी
कौन अंगड़ाई ले रहा है 'अदम'
दो जहाँ लड़खड़ाए जाते हैं
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले
-
टैग : ज़र्बुल-मसल
सुब्ह होती है शाम होती है
उम्र यूँही तमाम होती है
-
टैग्ज़ : फ़िल्मी शेरऔर 1 अन्य
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्यूँ बताएँ क्या हमारे दिल में है
हम से क्या हो सका मोहब्बत में
ख़ैर तुम ने तो बेवफ़ाई की
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो
-
टैग : प्रेरणादायक
मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो'तबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
ये सैर है कि दुपट्टा उड़ा रही है हवा
छुपाते हैं जो वो सीना कमर नहीं छुपती
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के
दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात
हाए कम-बख़्त को किस वक़्त ख़ुदा याद आया
शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी
कोई पत्थर से न मारे मिरे दीवाने को
-
टैग्ज़ : प्रसिद्ध मिसरेऔर 1 अन्य
दरवाज़ा खुला है कि कोई लौट न जाए
और उस के लिए जो कभी आया न गया हो
कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुक़द्दस ख़्वाब थे
हर ज़माने में शहादत के यही अस्बाब थे
ख़ुदा के वास्ते इस को न टोको
यही इक शहर में क़ातिल रहा है
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
ब-क़द्र-ए-पैमाना-ए-तख़य्युल सुरूर हर दिल में है ख़ुदी का
अगर न हो ये फ़रेब-ए-पैहम तो दम निकल जाए आदमी का
रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
बस इक निगाह पे ठहरा है फ़ैसला दिल का
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
फिर आज 'अदम' शाम से ग़मगीं है तबीअत
फिर आज सर-ए-शाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
कौन से शहर में होता है किधर होता है
बंदिश-ए-अल्फ़ाज़ जड़ने से नगों के कम नहीं
शाइ'री भी काम है 'आतिश' मुरस्सा-साज़ का
-
टैग्ज़ : प्रसिद्ध मिसरेऔर 1 अन्य
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
-
टैग्ज़ : प्रसिद्ध मिसरेऔर 1 अन्य
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है
हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत
देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम
ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो
कोई नाम-ओ-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस 'दाग़' है वो आशिक़ों के दिल में रहते हैं
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
व्याख्या
ये मीर तक़ी मीर के मशहूर अशआर में से एक है। इस शे’र की बुनियाद ''मत सहल हमें जानो” पर है। सहल का मतलब आसान है और कम से कम भी। मगर इस शे’र में यह लफ़्ज़ कम से कम के मानी में इस्तेमाल हुआ है। फ़लक का मतलब आस्मान है और फ़लक के फिरने से तात्पर्य चक्कर काटने और मारा मारा फिरने के भी हैं। इस शे’र में फ़लक के फिरने से तात्पर्य मारा मारा फिरने के ही हैं। ख़ाक का मतलब ज़मीन, मिट्टी है और ख़ाक शब्द मीर ने इस लिए इस्तेमाल किया है कि इंसान ख़ाक (मिट्टी) से बना हुआ है यानी ख़ाकी कहा जाता है।
शे’र में ख़ास बात ये है कि शायर ने “फ़लक”, “ख़ाक” और “इंसान” जैसे शब्दों से बहुत कमाल का ख़्याल पेश किया है। शे’र के नज़दीक के मानी तो ये हुए कि ऐ इंसान हम जैसे लोगों को आसान मत समझो, हम जैसे लोग तब मिट्टी से पैदा होते हैं जब आस्मान बरसों तक भटकता है। लेकिन शायर अस्ल में ये कहना चाहता है कि हम जैसे कमाल के लोग रोज़ रोज़ पैदा नहीं होते बल्कि जब आस्मान बरसों मारा मारा फिरता है तब हम जैसे लोग पैदा होते हैं। इसलिए हमें कम या बहुत छोटा मत जानो। यानी जब आस्मान बरसों तक हम जैसे कमाल के लोगों को पैदा करने के लिए मारा मारा फिरता है तब कहीं जाकर हम मिट्टी के पर्दे से पैदा होते हैं।
इस शे’र में शब्द इंसान से दो मानी निकलते हैं, एक कमाल का, हुनरमंद और योग्य आदमी। दूसरा इंसानियत से भरपूर आदमी।
शफ़क़ सुपुरी