आह शायरी
उर्दू क्लासिकी शायरी, शब्द और अर्थ की भव्यता का दर्शन और काव्य-शास्त्र है । इस में लफ़्ज़ों के माध्यम से अर्थों का संसार बनाने की कोशिश मिलती है । शब्द के व्यवहार से ही शायरी अस्तित्व में आती है । शब्द निरा शब्द नहीं होता बल्कि शेर के अर्थ निर्धारण में उसका बड़ा रोल होता है । आह भी क्लासिकी शायरी का ऐसा ही एक शब्द है जिसके इर्द-गिर्द अर्थ-शास्त्र की पूरी परंपरा मौजूद है । इस परंपरा में उर्दू शायरी का आशिक़ हमें आहें भरता हुआ नज़र आता है । इस अर्थ-शास्त्र को और समझने की कोशिश कीजिए तो पता चलता है कि आशिक़ जितनी आहें भरता है उसका माशूक़ उतना ही ज़ुल्म करता है । उसका दिल अपने आशिक़ के लिए नहीं पसीजता । यहाँ प्रस्तुत चुनिंदा शायरी में आप उर्दू शायरी के इस अर्थ-शास्त्र और उसकी परंपरा को महसूस करेंगे ।
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
A prayer needs a lifetime, an answer to obtain
who can live until the time that you decide to deign
दर्द-ए-दिल कितना पसंद आया उसे
मैं ने जब की आह उस ने वाह की
आदत के ब'अद दर्द भी देने लगा मज़ा
हँस हँस के आह आह किए जा रहा हूँ मैं
कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है
हम आह तो करते हैं फ़रियाद नहीं करते
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
आह करता हूँ तो सय्याद ख़फ़ा होता है
दिल पर चोट पड़ी है तब तो आह लबों तक आई है
यूँ ही छन से बोल उठना तो शीशे का दस्तूर नहीं
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
हम ने हँस हँस के तिरी बज़्म में ऐ पैकर-ए-नाज़
कितनी आहों को छुपाया है तुझे क्या मालूम
दर्द उल्फ़त का न हो तो ज़िंदगी का क्या मज़ा
आह-ओ-ज़ारी ज़िंदगी है बे-क़रारी ज़िंदगी
वो माज़ी जो है इक मजमुआ अश्कों और आहों का
न जाने मुझ को इस माज़ी से क्यूँ इतनी मोहब्बत है
पूछा अगर किसी ने मिरा आ के हाल-ए-दिल
बे-इख़्तियार आह लबों से निकल गई
अर्श तक जाती थी अब लब तक भी आ सकती नहीं
रहम आ जाता है क्यूँ अब मुझ को अपनी आह पर
it cannot even reach my lips, it used to reach the highest skies
I feel compassion at the sorry condition of my sighs
आह करता हूँ तो आती है पलट कर ये सदा
आशिक़ों के वास्ते बाब-ए-असर खुलता नहीं
आह! कल तक वो नवाज़िश! आज इतनी बे-रुख़ी
कुछ तो निस्बत चाहिए अंजाम को आग़ाज़ से
ऐ जुनूँ हाथ जो वो ज़ुल्फ़ न आई होती
आह ने अर्श की ज़ंजीर हिलाई होती
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ
मैं अपने दिल की मदद गाह गाह करता हूँ
आह-ए-बे-असर निकली नाला ना-रसा निकला
इक ख़ुदा पे तकिया था वो भी आप का निकला
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
दरवेश लोग रखते हैं जैसे हिरन की शाख़
न होवे क्यूँ के गर्दूं पे सदा दिल की बुलंद अपनी
हमारी आह है डंका दमामे के बजाने का